देवउठनी एकादशी पर विष्णुजी के नेत्रों से मुक्त होगी देवी योगनिद्रा, शास्त्रों में मिलता है सुंद
Dev Uthani Ekadashi 2024: भविष्य पुराण उत्तर पर्व अध्याय क्रमांक 70 के अनुसार, हिंदू कैलेंडर के आषाढ़ महीने से कार्तिक तक की अवधि को चातुर्मास के रूप में जाना जाता है जिसमें भगवान विष्णु शयन करते हैं. यह शयन देवी योगनिद्रा के अनुरोध पर किया गया था ताकि उन्हें उनके दिव्य शरीर में स्थान दिया जा सके.
संपूर्ण शरीर में अनेक दिव्य सत्ताएं व्याप्त थीं. केवल आंखें ही मुक्त थीं. इसलिए भगवान विष्णु ने आषाढ़ी एकादशी से कार्तिक एकादशी तक योगनिद्रा के लिए वर्ष में चार महीने आवंटित किए. आषाढ़ी एकादशी जिसे देवशयनी भी कहते हैं, में भगवान विष्णु शयन करते हैं और कार्तिक एकादशी जिसे देवोत्थानी एकादशी कहते हैं, में जागते हैं. इस दिन व्रत करने से न केवल सभी एकादशियों का लाभ मिलता है, बल्कि मोक्ष भी मिलता है.
देवशयनी एवं देवोत्थानी व्रत विधि:–
भगवान विष्णु की प्रतिमा को शय्यापर स्थापित कर उसी के सम्मुख वाणी पर नियंत्रण रखने का और अन्य नियमों का व्रत ग्रहण करें. वर्ष के चार मास तक देवाधिदेव के शयन और उसके बाद उत्थापन की विधि कही गयी है. इस व्रत के त्यागने और ग्रहण करने योग्य पदार्थों के अलग-अलग नियमों को भविष्य पुराण में वर्णित है. गुड़ का परित्याग करने से व्रती अगले जन्म में मधुर वाणी वाला राजा होता है. इसी प्रकार चार मास तक तेल का परित्याग करने वाला सुन्दर शरीर वाला होता है. कटु तैल का त्याग करने से उसके शत्रुओं का नाश होता है.
महुए के तेलका त्याग करने से अतुल सौभाग्य की प्राप्ति होती है. पुष्प आदि के भोग का परित्याग करने से स्वर्ग में विद्याधर होता है. इन चार मासों में जो योग का अभ्यास करता है, वह ब्रह्मपद को प्राप्त करता है. कड़वा, खट्टा, तीता, मधुर, क्षार, कषाय आदि रसों का जो त्याग करता है, वह वैरूप्य और दुर्गति को कभी भी प्राप्त नहीं होता. ताम्बूल के त्याग से श्रेष्ठ भोगों को प्राप्त करता है और मधुर कण्ठवाला होता है.
घृत के त्याग से रमणीय लावण्य और सभी प्रकार की सिद्धि को प्राप्त करता है. फल का त्याग करने से बुद्धिमान् होता है और अनेक पुत्रों की प्राप्ति होती है. पत्तों का साग खाने से रोगी, अपक्व अन्न खाने से निर्मल शरीर से युक्त होता है. तैल-मर्दन के परित्याग से व्रती दीप्तिमान्, दीप्तकरण, राजाधिराज धनाध्यक्ष कुबेर के सायुज्य को प्राप्त करता है. दही, दूध, तक्र (मट्ठा) के त्याग का नियम लेने से मनुष्य गोलोक को प्राप्त करता है.
स्थालीपाक का परित्याग करने पर इन्द्र का अतिथि होता है. तापपक्व वस्तु के भक्षण का नियम लेने पर दीर्घायु संतान की प्राप्ति होती है. पृथ्वीपर शयन का नियम लेने यानी भूमि पर सोने से विष्णु का भक्त होता है. इन वस्तुओं के परित्याग से धर्म होता है. नख और केशों के धारण करने पर, प्रतिदिन गंगा-स्नान करने पर एवं मौन व्रती रहने पर उसकी आज्ञा का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता. जो सदा पृथ्वीपर भोजन करता है, वह पृथ्वीपति होता है.
‘ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर मन्त्र का निराहार रहकर जप करने एवं भगवान् विष्णु के चरणों की वन्दना करने से गोदान जन्य फल प्राप्त होता है. भगवान विष्णु के चरणोदक के संस्पर्श से मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है. चातुर्मास्य में भगवान विष्णु के मन्दिर में उपलेपन और अर्चना करने से मनुष्य कल्पपर्यन्त स्थायी राजा होता है, इसमें संशय नहीं है.
स्तुतिपाठ करता हुआ जो सौ बार भगवान् विष्णु की प्रदक्षिणा करता है एवं पुष्प, माला आदि से पूजा करता है, वह हंसयुक्त विमान के द्वारा विष्णुलोक को जाता है. विष्णु-सम्बन्धी गान और वाद्य करने वाला गन्धर्व–लोक को प्राप्त होता है. प्रतिदिन शास्त्र-चर्चा से जो लोगों को ज्ञान प्रदान करता है, वह व्यासरूपी भगवान् के रूप में मान्य होता है और अन्त में विष्णुलोक को जाता है. नित्य स्नान करने वाला मनुष्य कभी नरकों में नहीं जाता.
भोजन का संयम करने वाला मनुष्य पुष्कर क्षेत्र में स्नान करने का फल प्राप्त करता है. अयाचित भोजन करने वाला श्रेष्ठ बावली और कुंआ बनाने का फल प्राप्त करता है. दिन के छठे (अन्तिम) भाग में अन्न के भक्षण करने से मनुष्य स्थायीरूप से स्वर्ग प्राप्त करता है. पत्तल में भोजन करने वाला मनुष्य कुरुक्षेत्र में वास करने का फल प्राप्त करता है.
चातुर्मास्य में इस प्रकार के व्रत एवं नियमों के पालन से साधक पूर्ण संतोष को प्राप्त करता है अर्थात सभी प्रकार सुखी एवं संतुष्ट हो जाता है. गरुडध्वज जगन्नाथ के शयन करने पर चारों वर्णों की विवाह, यज्ञ आदि सभी क्रियाएँ सम्पादित नहीं होती. विवाह, यज्ञोपवीतादि संस्कार, दीक्षा ग्रहण, यज्ञ, गृहप्रवेशादि, गोदान, प्रतिष्ठा एवं जितने भी शुभ कर्म हैं, वे सभी चातुर्मास्य में त्याज्य हैं. संक्रान्ति रहित मास में अर्थात् मलमास में देवता एवं पितरों से सम्बन्धित कोई भी क्रिया सम्पादित नहीं की जानी चाहिए. भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को भगवान विष्णु का कटिदान होता है अर्थात करवट बदलने की क्रिया सम्पन्न करनी चाहिए. इस दिन महापूजा करनी चाहिए.
क्यों चार मास तक शयन करते हैं भगवान विष्णु
अब इस विष्णु-शयन का कारण सुनिए. किसी समय तपस्या के प्रभाव से हरि को संतुष्टकर योगनिद्रा ने प्रार्थना की कि भगवन्! आप मुझे भी अपने अंगों में स्थान दीजिए. तब मैंने देखा कि मेरा सम्पूर्ण शरीर तो लक्ष्मी आदि के द्वारा अधिष्ठित है. लक्ष्मी के द्वारा उरःस्थल, शंख, चक्र, शार्ङ्गधनुष तथा असि के द्वारा बाहु, वैनतेय के द्वारा नाभि के नीचे के अंग, मुकुट से सिर, कुण्डलों से कान अवरुद्ध हैं. इसलिए मैंने संतुष्ट होकर नेत्रों में आदर से योगनिद्रा को स्थान दिया और कहा कि तुम वर्ष में चार मास मेरे आश्रित रहोगी. यह सुनकर प्रसन्न होकर योगनिद्रा ने मेरे नेत्रों में वास किया.
मैं उस मनस्विनी को आदर देता हूं. योगनिद्रा में जब मैं क्षीरसागर में इस महानिद्रारूपी शेषशय्या पर शयन करता हूं, उस समय ब्रह्मा के सांनिध्य में भगवती लक्ष्मी अपने कर कमलों से मेरे दोनों चरणों का मर्दन करती है और क्षीरसागर की लहरें मेरे चरणों को धोती है. हे जो मनुष्य इस चातुर्मास्य के समय अनेक व्रत-नियमपूर्वक रहता है, वह कल्प पर्यन्त विष्णु लोक में निवास करता है. शंख, चक्र, गदाधारी भगवान विष्णु कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी में जागते हैं, उसकी व्रत-विधि आप सुनिए.
देवउठनी एकादशी व्रत की विधि:-
भगवान को इस मन्त्र से जगाना चाहिए- ‘इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूढमस्य पा सुरे स्वाहा ॥ (यजु० 5।15) अपने आसन पर विष्णु के जागने पर संसार की सभी धार्मिक क्रियाएं प्रवृत्त हो जाती है. शंख, मृदंग आदि वाद्यों की ध्वनि एवं जयघोष के साथ भगवान को रात्रि में रथपर बैठाकर घुमाना चाहिए. देव देवेश के उठने पर नगर को दीपों से दीप्यमान कर नृत्य-गीत-वाद्य आदि से मंगलोत्सव करना चाहिए. धरणीधर दामोदर भगवान् विष्णु उठकर जिस-जिसको देखते हैं, उस समय उन्हें प्रदत्त सभी वस्तुएं मानव को स्वर्ग में प्राप्त होती है.
एकादशी के दिन रात्रि में मन्दिर में जागरण करें. द्वादशी में प्रातः काल स्वच्छ जल से स्नानकर विष्णु की पूजा करें. अग्नि में घृत आदि हव्य द्रव्यों से हवन करे, इसके बाद स्नानकर ब्राह्मण को विशिष्ट अन्नों का भोजन कराए. घी, दही, मधु, गुड आदि के द्वारा निर्मित मोदक को भोजन के लिये समर्पित करें. यजमान भी प्रसन्नतापूर्वक संयमित होकर ग्यारह, दस, आठ, पांच या दो विप्रों की पुष्प, गन्ध आदि से विधिवत् पूजा करें. श्रेष्ठ संन्यासियों को भी भोजन कराएं और संकल्प में त्यक्त पदार्थ तथा अभीष्ट पत्र-पुष्प आदि दक्षिणा के साथ देकर उन्हें बिदा करें.
इसके बाद स्वयं भोजन करना चाहिए. जिस वस्तु को चार मास तक छोड़ा है, उसे भी खाना चाहिए. ऐसा करने से धर्म की प्राप्ति होती है. अन्त में व्रती विष्णुपुरी (वैकुण्ठ)- को प्राप्त करता है. जिस व्यक्ति का चातुर्मास्य व्रत निर्विघ्न सम्पन्न होता है, वह कृतकृत्य हो जाता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता. जो देवशयन-व्रत को विधिपूर्वक सम्पन्न करता हुआ अन्त में भगवान विष्णु को जगाता है, वह विष्णु लोक को प्राप्त करता है.
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