‘तू’ कहकर क्यों नहीं बोलना चाहिए ? शास्त्रों में छिपा है इसका राज
Gyan Ki Baat: सनातन धर्म नित्य-नूतन, निरंतर और चिर पुरातन है. सनातन धर्म अथवा हिन्दू धर्म में सब कार्य व्यवस्थित होते हैं. हर चीज के पीछे कोई न कोई कारण अथवा तर्क होता है. यह सब हिन्दू धर्म शास्त्रों में विस्तार से लिखा हुआ है. लेकिन, आज की तेज गति से चलने वाली दुनिया में हिन्दू धर्म शास्त्रों का अध्ययन करने का समय लोगों को नहीं मिलता है. ये भी कहा जा सकता है कि लोग पढ़ना ही नहीं चाहते.
स्तंभकार, डॉ. महेंद्र ठाकुर के अनुसार हिन्दू धर्म शास्त्रों का अध्ययन न करने के पीछे चाहे जितने भी कारण या बहाने हों, लेकिन एक मूल कारण मैकॉले की अंग्रेजी शिक्षा पद्धति भी है. हिन्दू जीवन पद्धति या परंपरा में संस्कारों का बहुत महत्त्व है. इसमें बालक के गर्भ में आने से पहले से लेकर जन्म लेने के बाद जीवनयापन करने और मृत्यु पर्यंत तक संस्कारों की एक सुंदर व्यवस्था है. आज भी 16 संस्कार प्रचलन में हैं.
जब कोई बच्चा या व्यक्ति अभद्रता से बात करता है या व्यवहार करता है तो लोग कहते हैं कि ‘इसको संस्कार नहीं सिखाये गए हैं’ या ‘ये कुसंस्कारी है’. जब कोई बच्चा या व्यक्ति अपने से बड़ी आयु के व्यक्ति को ‘तू’, ‘तेरा, तेरी, तुझे आदि वचन बोलकर या तू-तड़ाक से बात करता है तो लोग असहज हो जाते हैं. बल्कि बुरा माना जाता है. अपने से बड़ों से ‘तू’ कहकर बात करना संस्कारहीनता माना जाता है. प्रश्न उठता है ऐसा क्यों? इसके पीछे क्या कारण है कि छोटे आयु के लोगों या बच्चों द्वारा बड़ों को ‘तू’ शब्द का संबोधन संस्कारहीनता माना जाता है?
अपने से बड़ों को ‘तू’, ‘तेरा/तेरी’, तुझे आदि का संबोधन क्यों नहीं करना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर महर्षि वेदव्यास रचित और भगवान श्री गणेश द्वारा लिखित महाभारत में के आधार पर देने का प्रयास किया गया है. इस प्रश्न के उत्तर की पूरी पृष्ठभूमि महाभारत के कर्ण पर्व के अध्यायों 65-71 में हैं.
महाभारत के अनुसार भीमसेन को युद्ध का भार सौंपकर श्रीकृष्ण और अर्जुन युधिष्ठिर के पास जाते हैं. उनके अपने पास आने पर युधिष्ठिर अर्जुन से भ्रमवश कर्ण के मारे जाने का वृत्तान्त पूछते हैं. युधिष्टिर के पूछने पर अर्जुन युधिष्ठिर से अब तक कर्ण को न मार सकने का कारण बताते हैं और उसे मारने के लिये प्रतिज्ञा करते हैं.
अर्जुन के मुख से ऐसा सुनकर युधिष्ठिर अत्यंत क्रोधित हो गए और अर्जुन का अपमान करते हुए बहुत बुरे वचन कहे. क्रोधवश कटु वचन कहते हुए युधिष्ठिर ने अर्जुन से अपना गांडीव धनुष श्रीकृष्ण को देने या किसी दूसरे राजा को देने की बात कही (कर्ण पर्व, अध्याय 68, श्लोक 26-27), इतना ही नहीं श्लोक 30 में युधिष्टिर ने अर्जुन को धिक्कारते हुए कहा, “धिक्कार है तुम्हारे इस गाण्डीव धनुष को, धिक्कार है तुम्हारी भुजाओं के पराक्रम को, धिक्कार है तुम्हारे इन असंख्य बाणों को, धिक्कार है हनुमान् जी के द्वारा उपलक्षित तुम्हारी इस ध्वजा को तथा धिक्कार है अग्निदेव के दिये हुए इस रथको”.
युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर अर्जुन को बड़ा क्रोध आया. उन्होंने युधिष्ठिर को मार डालने की इच्छा से तलवार उठा ली. उस समय उनका क्रोध देखकर भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से पूछा कि ‘पार्थ! यह क्या? तुमने तलवार कैसे उठा ली?’. और अर्जुन को बहुत डांट लगायी. इस पर अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से अपनी प्रतिज्ञा या व्रत के बारे में बताते हैं,
“मनुष्यों में से जो कोई भी मुझसे यह कह दे कि तुम अपना गाण्डीव धनुष किसी दूसरे ऐसे पुरुष को दे दो जो अस्त्रों के ज्ञान अथवा बल में तुमसे बढ़कर हो; तो केशव ! मैं उसे बलपूर्वक मार डालूँ. इसी प्रकार भीमसेन को कोई ‘मूँछ दाढ़ीरहित’ कह दे तो वे उसे मार डालेंगे, वृष्णिवीर ! राजा युधिष्ठिर ने आपके सामने ही बारंबार मुझसे कहा है कि ‘तुम अपना धनुष दूसरे को दे दो” (कर्ण पर्व, अध्याय 69, श्लोक 62-63).
अर्जुन आगे कहते हैं कि यदि वह युधिष्ठिर को मार डालेंगे तो स्वयं भी जीवित नहीं रहेंगे. इसके बाद अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से ऐसा उपाय पूछते हैं जिससे उनकी प्रतिज्ञा की रक्षा भी हो जाए और दोनों भाइयों के प्राण भी बच जाए.
अर्जुन के पूछने पर भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि युधिष्टिर ने कटु वचन क्यों कहें. फिर इसी अध्याय में अर्जुन की प्रतिज्ञा की रक्षा के लिए उपाय बताते हुए कहा, “
यदा मानं लभते माननार्हस्तदा स वै जीवति जीवलोके ।
यदावमानं लभते महान्तं तदा जीवन्मृत इत्युच्यते सः ।। 81 ।।
अर्थात्: इस जीवजगत में माननीय पुरुष जब तक सम्मान पाता है, तभी तक वह वास्तव में जीवित है। जब वह महान् अपमान पाने लगता है, तब वह जीते-जी मरा हुआ कहलाता है.
त्वमित्यत्रभवन्तं हि ब्रूहि पार्थ युधिष्ठिरम् ।
त्वमित्युक्तो हि निहतो गुरुर्भवति भारत ।। 83 ।।
अर्थात्: पार्थ! तुम युधिष्ठिर को सदा ‘आप’ कहते आये हो, आज उन्हें ‘तू‘ कह दो। भारत ! यदि किसी गुरुजन को ‘तू‘ कह दिया जाए तो यह साधु पुरुषों की दृष्टि में उस का वध ही हो जाता है.
अगले श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने एक श्रुति के बारे में बताया जिसके देवता अथर्वा और अंगिरा हैं.
अवधेन वधः प्रोक्तो यद् गुरुस्त्वमिति प्रभुः ।
तद् ब्रूहि त्वं यन्मयोक्तं धर्मराजस्य धर्मवित् ।। 86 ।।
उस श्रुति का भाव यह है- ‘गुरु को तू कह देना उसे बिना मारे ही मार डालना है’। तुम धर्मज्ञ हो तो भी जैसा मैंने बताया है, उसके अनुसार धर्मराज के लिये ‘तू’ शब्द का प्रयोग करो.
भगवान श्रीकृष्ण के वचन सुनने के बाद अर्जुन ने ऐसा ही किया और बाद में ग्लानी से भर गए. इस आत्मग्लानि
से बाहर निकालने के लिए भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को एक और उपाय बताया. अर्जुन के वैसा करने के बाद दोनों भाइयों का पुनः मिलन हो गया.
सार यह है कि अपने से बड़ों को ‘तू’ कहकर संबोधित नहीं करना चाहिए. इसका शास्त्रीय प्रमाण महाभारत में है. महाभारतकाल में भगवान श्रीकृष्ण के पृथ्वी छोड़ने के बाद ही कलियुग आगमन हुआ और यह शास्त्रीय ज्ञान हमारी परपंरा में प्रचलित हो गया.
नारायणायेती समर्पयामि…….
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